
जय श्री राम | जैसा की आप सभी जानते हैं की यह महाकाव्य ग्रन्थ श्री राम के सम्पूर्ण जीवन की कथा को बताता हैं यह ग्रन्थ तुलसीदास जी के द्वारा लिखा गया, जिसमे यहाँ 7 खंडो के विभाजित हैं १:रामचरितमानस बालकाण्ड , २: रामचरितमानस अयोध्या काण्ड , ३: रामचरितमानस अरण्यकाण्ड, ४: रामचरितमानस किष्किंधा काण्ड , ५:रामचरितमानस सुंदरकाण्ड , ६:रामचरितमानस लंकाकाण्ड, ७:रामचरितमानस उत्तरकाण्ड
जैसा की नाम हैं वैसा ही उनका वर्णन हैं बालकाण्ड में श्री राम के बाल अवस्था का वर्णन मिलता हैं की कैसा उनका बाल काल था.
इसकी रचना संवत 1631 ई. की रामनवमी को अयोध्या में प्रारम्भ हुई थी किन्तु इसका कुछ अंश काशी (वाराणसी) में भी निर्मित हुआ था, यह इसके किष्किन्धा काण्ड के प्रारम्भ में आने वाले एक सोरठे से निकलती है, उसमें काशी सेवन का उल्लेख है। इसकी समाप्ति संवत 1633 ई. की मार्गशीर्ष, शुक्ल 5, रविवार को हुई थी किन्तु उक्त तिथि गणना से शुद्ध नहीं ठहरती, इसलिए विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। यह रचना अवधी बोली में लिखी गयी है। इसके मुख्य छन्द चौपाई और दोहा हैं, बीच-बीच में कुछ अन्य प्रकार के भी छन्दों का प्रयोग हुआ है। प्राय: 8 या अधिक अर्द्धलियों के बाद दोहा होता है और इन दोहों के साथ कड़वक संख्या दी गयी है। इस प्रकार के समस्त कड़वकों की संख्या 1074 है।
रामचरितमानस में छन्दों की संख्या
रामचरितमानस में विविध छन्दों की संख्या निम्नवत है-
चौपाई – 9388
दोहा – 1172
सोरठा –87
श्लोक – 47 (अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, वंशस्थ, उपजाति, प्रमाणिका, मालिनी, स्रग्धरा, रथोद्धता, भुजङ्गप्रयात, तोटक)
छन्द – 208 (हरिगीतिका, चौपैया, त्रिभङ्गी, तोमर)
कुल 10902 (चौपाई, दोहा, सोरठा, श्लोक, छन्द)
यह प्रश्न उठता है कि तुलसीदास ने राम तथा उनके भक्तों के चरित्र में ऐसी कौन-सी विलक्षणता उपस्थित की है, जिससे उनकी इस कृति को इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। तुलसीदास की इस रचना में अनेक दुर्लभ गुण हैं किन्तु कदाचित अपने जिस महान् गुण के कारण इसने यह असाधारण सम्मान प्राप्त किया है, वह है ऐसी मानवता की कल्पना, जिसमें उदारता, क्षमा, त्याग, निवैरता, धैर्य और सहनशीलता आदि सामाजिक शिवत्व के गुण अपनी पराकाष्ठा के साथ मिलते हों और फिर भी जो अव्यावहारिक न हों। ‘रामचरितमानस’ के सर्वप्रमुख चरित्र-राम, भरत, सीता आदि इसी प्रकार के हैं। उदाहरण के लिए राम और कौशल्या के चरित्रों को देखते हैं-
‘वाल्मीकि रामायण’ में राम जब वनवास का दु:संवाद सुनाने कौशल्या के पास आते हैं, वे कहते हैं: ‘देवि, आप जानती नहीं हैं, आपके लिए, सीता के लिए और लक्ष्मण के लिए बड़ा भय आया है, इससे आप लोग दु:खी होंगे। अब मैं दण्डकारण्य जा रहा हूँ, इससे आप लोग दुखी होंगे। भोजन के निमित्त बैठने के लिए रखे गये इस आसन से मुझे क्या करना है? अब मेरे लिए कुशा आसन चाहिये, आसन नहीं। निर्जन वन में चौदह वर्षो तक निवास करूँगा। अब मैं कन्द मूल फल से जीविका चलाऊँगा। महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और तपस्वी वेश में मुझे अरण्य भेज रहे है’।
‘अध्यात्म रामायण’ में राम ने इस प्रसंग में कहा है, ‘माता मुझे भोजन करने का समय नहीं है, क्योंकि आज मेरे लिए यह समय शीघ्र ही दण्डकारण्य जाने के लिए निश्चित किया गया है। मेरे सत्य-प्रतिज्ञ पिता ने माता कैकेयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे अति उत्तम वनवास दिया। वहाँ मुनि वेश में चौदह वर्ष रहकर मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें।’
‘रामचरितमानस’ में यह प्रसंग इस प्रकार है-
“मातृ वचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरू के फूला।।
सुख मकरन्द भरे श्रिय मूला। निरखि राम मन भंवरू न भूला।।
धरम धुरीन धरम गनि जानी। कहेउ मातृ सन अमृत वानी।।
पिता दीन्ह मोहिं कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू।।
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।।
जनि सनेह बस डरपति मोरे। आबहुँ अम्ब अनुग्रह तोरे।।”