#BHAKTIGAANE #MAHABHARATSHLOK #GEETASHLOK #GEETAUPDESH #KRISHNAUPDESH #MAHAKAVYASHLOK
Lyrics Name:श्रीमदभगवदगीता अष्टादश अध्याय सभी श्लोक
Album Name:Shrimad Bhgwad Geeta Mahakavya
Published Year:2017
अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अर्जुन बोले —
हे महाबाहो हे हृषीकेश हे
केशिनिषूदन मैं संन्यास और
त्यागका तत्त्व अलगअलग जानना चाहता हूँ।
श्री भगवानुवाच
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
श्रीभगवान् बोले — कई विद्वान् काम्यकर्मोंके त्यागको संन्यास कहते हैं और कई विद्वान् सम्पूर्ण कर्मोंके फलके त्यागको त्याग कहते हैं। कई विद्वान् कहते हैं कि कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये और कई विद्वान् कहते हैं कि यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये।
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
श्रीभगवान् बोले —
कई विद्वान् काम्यकर्मोंके
त्यागको संन्यास कहते हैं
और कई विद्वान् सम्पूर्ण कर्मोंके
फलके त्यागको त्याग कहते हैं।
कई विद्वान् कहते हैं कि
कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये
और कई विद्वान् कहते हैं कि यज्ञ? दान और
तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये।
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीर्तितः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन
तू संन्यास और त्याग —
इन दोनोंमेंसे पहले त्यागके
विषयमें मेरा निश्चय सुन
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ त्याग
तीन प्रकारका कहा गया है।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
यज्ञ? दान
और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये?
प्रत्युत उनको तो करना ही चाहिये
क्योंकि यज्ञ? दान और तप —
ये तीनों ही कर्म मनीषियोंको पवित्र करनेवाले हैं।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्िचतं मतमुत्तमम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ (पूर्वोक्त यज्ञ? दान और तप — )
इन कर्मोंको तथा दूसरे भी कर्मोंको आसक्ति
और फलोंका त्याग करके करना चाहिये —
यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है।
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
नियत कर्मका
तो त्याग करना उचित नहीं है।
उसका मोहपूर्वक त्याग करना
तामस कहा गया है।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो कुछ कर्म है?
वह दुःखरूप ही है —
ऐसा समझकर कोई शारीरिक
क्लेशके भयसे उसका त्याग कर दे?
तो वह राजस त्याग करके भी
त्यागके फलको नहीं पाता।
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे अर्जुन
केवल कर्तव्यमात्र करना है —
ऐसा समझकर जो नियत कर्म आसक्ति
और फलका त्याग करके किया जाता है?
वही सात्त्विक त्याग माना गया है।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो अकुशल कर्मसे द्वेष नहीं करता
और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता?
वह त्यागी? बुद्धिमान्? सन्देहरहित
और अपने स्वरूपमें स्थित है।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
कारण कि देहधारी
मनुष्यके द्वारा सम्पूर्ण कर्मोंका
त्याग करना सम्भव नहीं है।
इसलिये जो कर्मफलका त्यागी है?
वही त्यागी है — ऐसा कहा जाता है।
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिनां क्वचित्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
कर्मफलका त्याग न करनेवाले
मनुष्योंको कर्मोंका इष्ट?
अनिष्ट और मिश्रित —
ऐसे तीन प्रकारका फल मरनेके बाद भी होता है
परन्तु कर्मफलका त्याग
करनेवालोंको कहीं भी नहीं होता।
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे महाबाहो
कर्मोंका अन्त करनेवाले
सांख्यसिद्धान्तमें सम्पूर्ण कर्मोंकी
सिद्धिके लिये ये पाँच कारण बताये गये हैं?
इनको तू मेरेसे समझ।
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
इसमें (कर्मोंकी सिद्धिमें)
अधिष्ठान तथा कर्ता
और अनेक प्रकारके करण
एवं विविध प्रकारकी अलगअलग चेष्टाएँ
और वैसे ही पाँचवाँ कारण दैव (संस्कार) है
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।मनुष्य? शरीर? वाणी
और मनके द्वारा शास्त्रविहित
अथवा शास्त्रविरुद्ध जो कुछ
भी कर्म आरम्भ करता है?
उसके ये (पूर्वोक्त) पाँचों हेतु होते हैं।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
परन्तु ऐसे पाँच
हेतुओंके होनेपर भी जो
उस (कर्मोंके) विषयमें केवल (शुद्ध)
आत्माको कर्ता मानता है?
वह दुर्मति ठीक नहीं समझता
क्योंकि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है।
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जिसका अहंकृतभाव नहीं है
और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती?
वह इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर
भी न मारता है और न बँधता है।
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
ज्ञान? ज्ञेय और परिज्ञाता —
इन तीनोंसे कर्मप्रेरणा होती है
तथा करण? कर्म और कर्ता —
इन तीनोंसे कर्मसंग्रह होता है।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
गुणसंख्यान (गुणोंके सम्बन्धसे प्रत्येक पदार्थके भिन्नभिन्न भेदोंकी गणना करनेवाले)
शास्त्रमें गुणोंके भेदसे ज्ञान
और कर्म तथा कर्ता तीन
तीन प्रकारसे ही कहे जाते हैं?
उनको भी तुम यथार्थरूपसे सुनो।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जिस ज्ञानके द्वारा साधक
सम्पूर्ण विभक्त प्राणियोंमें
विभागरहित एक अविनाशी
भाव(सत्ता) को देखता है?
उस ज्ञानको तुम सात्त्विक समझो।
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
परन्तु जो ज्ञान
अर्थात् जिस ज्ञानके द्वारा
मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंमें अलगअलग
अनेक भावोंको अलगअलग रूपसे जानता है?
उस ज्ञानको तुम राजस समझो।
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
किंतु जो (ज्ञान)
एक कार्यरूप शरीरमें ही
सम्पूर्णके तरह आसक्त है
तथा जो युक्तिरहित?
वास्तविक ज्ञानसे रहित
और तुच्छ है?
वह तामस कहा गया है।
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो कर्म
शास्त्रविधिसे नियत किया हुआ
और कर्तृत्वाभिमानसे रहित हो
तथा फलेच्छारहित मनुष्यके द्वारा
बिना रागद्वेषके किया हुआ हो?
वह सात्त्विक कहा जाता है।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
परन्तु जो
कर्म भोगोंको चाहनेवाले
मनुष्यके द्वारा अहंकार
अथवा परिश्रमपूर्वक किया जाता है?
वह राजस कहा गया है।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो कर्म परिणाम? हानि?
हिंसा और सामर्थ्यको न देखकर
मोहपूर्वक आरम्भ किया जाता है?
वह तामस कहा जाता है।
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो कर्ता रागरहित?
अनहंवादी? धैर्य और
उत्साहयुक्त तथा सिद्धि
और असिद्धिमें निर्विकार है?
वह सात्त्विक कहा जाता है।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो कर्ता रागी?
कर्मफलकी इच्छावाला? लोभी?
हिंसाके स्वभाववाला? अशुद्ध
और हर्षशोकसे युक्त है?
वह राजस कहा गया है।
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो कर्ता असावधान?
अशिक्षित? ऐंठअकड़वाला? जिद्दी?
उपकारीका अपकार करनेवाला?
आलसी? विषादी और दीर्घसूत्री है?
वह तामस कहा जाता है।
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे धनञ्जय अब तू गुणोंके अनुसार
बुद्धि और धृतिके भी
तीन प्रकारके भेद अलगअलगरूपसे सुन?
जो कि मेरे द्वारा पूर्णरूपसे कहे जा रहे हैं।
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पृथानन्दन जो बुद्धि प्रवृत्ति
और निवृत्तिको? कर्तव्य
और अकर्तव्यको? भय
और अभयको तथा बन्धन
और मोक्षको जानती है?
वह बुद्धि सात्त्विकी है।
यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ
मनुष्य जिसके द्वारा धर्म
और अधर्मको? कर्तव्य
और अकर्तव्यको भी ठीक
तरहसे नहीं जानता?
वह बुद्धि राजसी है।
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पृथानन्दन
तमोगुणसे घिरी हुई
जो बुद्धि अधर्मको धर्म
और सम्पूर्ण चीजोंको उलटा
मान लेती है? वह तामसी है।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ
समतासे युक्त जिस अव्यभिचारिणी
धृतिके द्वारा मनुष्य मन? प्राण
और इन्द्रियोंकी क्रियाओंको धारण करता है?
वह धृति सात्त्विकी है।
यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पृथानन्दन
अर्जुन फलकी इच्छावाला मनुष्य
जिस धृतिके द्वारा धर्म? काम (भोग)
और अर्थको अत्यन्त आसक्तिपूर्वक
धारण करता है? वह धृति राजसी है।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पार्थ
दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य
जिस धृतिके द्वारा निद्रा?
भय? चिन्ता? दुःख और
घमण्डको भी नहीं छोड़ता?
वह धृति तामसी है।
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन अब तीन प्रकारके सुखको भी तुम मेरेसे सुनो। जिसमें अभ्याससे रमण होता है और जिससे दुःखोंका अन्त हो जाता है? ऐसा वह परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे पैदा होनेवाला जो सुख (सांसारिक आसक्तिके कारण) आरम्भमें विषकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह होता है? वह सुख सात्त्विक कहा गया है।
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन अब तीन प्रकारके सुखको भी तुम मेरेसे सुनो। जिसमें अभ्याससे रमण होता है और जिससे दुःखोंका अन्त हो जाता है? ऐसा वह परमात्मविषयक बुद्धिकी प्रसन्नतासे पैदा होनेवाला जो सुख (सांसारिक आसक्तिके कारण) आरम्भमें विषकी तरह और परिणाममें अमृतकी तरह होता है? वह सुख सात्त्विक कहा गया है।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो सुख इन्द्रियों और
विषयोंके संयोगसे आरम्भमें
अमृतकी तरह और
परिणाममें विषकी तरह होता है?
वह सुख राजस कहा गया है।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
निद्रा? आलस्य और
प्रमादसे उत्पन्न होनेवाला
जो सुख आरम्भमें और
परिणाममें अपनेको मोहित करनेवाला है?
वह सुख तामस कहा गया है।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्ित्रभिर्गुणैः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
पृथ्वीमें या स्वर्गमें
अथवा देवताओंमें
इनके सिवाय और कहीं
भी वह ऐसी कोई वस्तु नहीं है?
जो प्रकृतिसे उत्पन्न
इन तीनों गुणोंसे रहित हो।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे परंतप ब्राह्मण?
क्षत्रिय? वैश्य और
शूद्रोंके कर्म स्वभावसे उत्पन्न हुए
तीनों गुणोंके द्वारा विभक्त किये गये हैं।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
मनका निग्रह करना इन्द्रियोंको वशमें करना धर्मपालनके लिये कष्ट सहना बाहरभीतरसे शुद्ध रहना दूसरोंके अपराधको क्षमा करना शरीर? मन आदिमें सरलता रखना वेद? शास्त्र आदिका ज्ञान होना यज्ञविधिको अनुभवमें लाना और परमात्मा? वेद आदिमें आस्तिक भाव रखना — ये सबकेसब ब्राह्मणके स्वाभाविक कर्म हैं।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
शूरवीरता? तेज? धैर्य?
प्रजाके संचालन आदिकी विशेष चतुरता?
युद्धमें कभी पीठ न दिखाना?
दान करना और शासन करनेका भाव —
ये सबकेसब क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं।
कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
खेती करना?
गायोंकी रक्षा करना
और शुद्ध व्यापार करना —
ये सबकेसब वैश्यके स्वाभाविक कर्म हैं?
तथा चारों वर्णोंकी सेवा करना
शूद्रका भी स्वाभाविक कर्म है।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अपनेअपने कर्ममें
तत्परतापूर्वक लगा हुआ
मनुष्य सम्यक् सिद्धि
(परमात्मा)को प्राप्त कर लेता है।
अपने कर्ममें लगा हुआ
मनुष्य जिस प्रकार सिद्धिको प्राप्त होता है?
उस प्रकारको तू मेरेसे सुन।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जिस परमात्मासे
सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है
और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है?
उस परमात्माका अपने कर्मके द्वारा
पूजन करके मनुष्य सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अच्छी तरहसे अनुष्ठान किये हुए
परधर्मसे गुणरहित अपना धर्म श्रेष्ठ है।
कारण कि स्वभावसे नियत किये हुए
स्वधर्मरूप कर्मको करता हुआ
मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे कुन्तीनन्दन
दोषयुक्त होनेपर भी सहज
कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये
क्योंकि सम्पूर्ण कर्म धुएँसे अग्निकी
तरह किसीनकिसी दोषसे युक्त हैं।
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जिसकी बुद्धि
सब जगह आसक्तिरहित है?
जिसने शरीरको वशमें कर रखा है?
जो स्पृहारहित है?
वह मनुष्य सांख्ययोगके द्वारा
नैष्कर्म्यसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।
सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे कौन्तेय सिद्धि(अन्तःकरणकी शुद्धि)
को प्राप्त हुआ साधक ब्रह्मको?
जो कि ज्ञानकी परा निष्ठा है?
जिस प्रकारसे प्राप्त होता है?
उस प्रकारको तुम मुझसे संक्षेपमें ही समझो।
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।
शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त? वैराग्यके आश्रित? एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके? शरीरवाणीमनको वशमें करके? शब्दादि विषयोंका त्याग करके और रागद्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है? वह अहंकार? बल? दर्प? काम? क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त? वैराग्यके आश्रित? एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके? शरीरवाणीमनको वशमें करके? शब्दादि विषयोंका त्याग करके और रागद्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है? वह अहंकार? बल? दर्प? काम? क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।
अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो विशुद्ध (सात्त्विकी) बुद्धिसे युक्त? वैराग्यके आश्रित? एकान्तका सेवन करनेवाला और नियमित भोजन करनेवाला साधक धैर्यपूर्वक इन्द्रियोंका नियमन करके? शरीरवाणीमनको वशमें करके? शब्दादि विषयोंका त्याग करके और रागद्वेषको छोड़कर निरन्तर ध्यानयोगके परायण हो जाता है? वह अहंकार? बल? दर्प? काम? क्रोध और परिग्रहका त्याग करके एवं निर्मम तथा शान्त होकर ब्रह्मप्राप्तिका पात्र हो जाता है।
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
वह ब्रह्मभूतअवस्थाको
प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो
किसीके लिये शोक करता है
और न किसीकी इच्छा करता है।
ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाववाला
साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त हो जाता है।
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
उस पराभक्तिसे मेरेको?
मैं जितना हूँ और जो हूँ —
इसको तत्त्वसे जान लेता है
तथा मेरेको तत्त्वसे जानकर
फिर तत्काल मेरेमें प्रविष्ट हो जाता है।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
मेरा आश्रय लेनेवाला
भक्त सदा सब कर्म करता
हुआ भी मेरी कृपासे शाश्वत
अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है।
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
मेरा आश्रय लेनेवाला
भक्त सदा सब कर्म करता
हुआ भी मेरी कृपासे शाश्वत
अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
चित्तसे सम्पूर्ण
कर्म मुझमें अर्पण करके?
मेरे परायण होकर तथा
समताका आश्रय लेकर
निरन्तर मुझमें चित्तवाला हो जा।
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
मेरेमें चित्तवाला होकर
तू मेरी कृपासे सम्पूर्ण
विघ्नोंको तर जायगा
और यदि तू अहंकारके कारण
मेरी बात नहीं सुनेगा
तो तेरा पतन हो जायगा।
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अहंकारका
आश्रय लेकर तू
जो ऐसा मान रहा है कि
मैं युद्ध नहीं करूँगा?
तेरा यह निश्चय मिथ्या (झूठा) है
क्योंकि तेरी क्षात्रप्रकृति
तेरेको युद्धमें लगा देगी।
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे कुन्तीनन्दन
अपने स्वभावजन्य कर्मसे
बँधा हुआ तू मोहके
कारण जो नहीं करना चाहता?
उसको तू (क्षात्रप्रकृतिके)
परवश होकर करेगा।
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे अर्जुन
ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है
और अपनी मायासे शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हुए
सम्पूर्ण प्राणियोंको (उनके स्वभावके अनुसार)
भ्रमण कराता रहता है।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे भरतवंशोद्भव
अर्जुन तू सर्वभावसे उस ईश्वरकी ही शरणमें चला जा।
उसकी कृपासे तू परमशान्ति(संसारसे सर्वथा उपरति)
को और अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जायगा।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
यह गुह्यसे भी गुह्यतर (शरणागतिरूप)
ज्ञान मैंने तुझे कह दिया।
अब तू इसपर अच्छी तरहसे विचार
करके जैसा चाहता है? वैसा कर।
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
सबसे अत्यन्त
गोपनीय वचन तू फिर मेरेसे सुन।
तू मेरा अत्यन्त प्रिय है?
इसलिये मैं तेरे हितकी बात कहूँगा।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
तू मेरा भक्त हो जा?
मेरेमें मनवाला हो जा?
मेरा पूजन करनेवाला हो जा
और मेरेको नमस्कार कर।
ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त हो जायगा —
यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ
क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू
केवल मेरी शरणमें आ जा।
मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा?
चिन्ता मत कर।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
यह सर्वगुह्यतम
वचन अतपस्वीको मत कहना
अभक्तको कभी मत कहना
जो सुनना नहीं चाहता?
उसको मत कहना और
जो मेरेमें दोषदृष्टि करता है?
उससे भी मत कहना।
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्ितं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
मेरेमें पराभक्ति करके
जो इस परम गोपनीय संवाद(गीताग्रन्थ)
को मेरे भक्तोंमें कहेगा?
वह मुझे ही प्राप्त होगा —
इसमें कोई सन्देह नहीं है।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्िचन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
उसके समान
मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य करनेवाला
मनुष्योंमें कोई भी नहीं है
और इस भूमण्डलपर उसके समान
मेरा दूसरा कोई प्रियतर होगा भी नहीं।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जो मनुष्य
हम दोनोंके इस धर्ममय
संवादका अध्ययन करेगा?
उसके द्वारा भी मैं
ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा —
ऐसा मेरा मत है।
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
श्रद्धावान् और
दोषदृष्टिसे रहित जो मनुष्य
इस गीताग्रन्थको सुन भी लेगा?
वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर
पुण्यकारियोंके शुभ लोकोंको प्राप्त हो जायगा।
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसंमोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे पृथानन्दन
क्या तुमने एकाग्रचित्तसे
इसको सुना और हे
धनञ्जय क्या तुम्हारा
अज्ञानसे उत्पन्न मोह नष्ट हुआ
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
अर्जुन बोले —
हे अच्युत आपकी
कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है
और स्मृति प्राप्त हो गयी है।
मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ।
अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
सञ्जय उवाच
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
सञ्जय बोले —
इस प्रकार मैंने
भगवान् वासुदेव और
महात्मा पृथानन्दन अर्जुनका यह
रोमाञ्चित करनेवाला अद्भुत संवाद सुना।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम्।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
व्यासजीकी कृपासे
मैंने स्वयं इस परम गोपनीय
योग (गीताग्रन्थ) को कहते हुए
साक्षात् योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्णसे सुना है।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे राजन्
भगवान् श्रीकृष्ण और
अर्जुनके इस पवित्र और
अद्भुत संवादको याद करकरके
मैं बारबार हर्षित हो रहा हूँ।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महान् राजन् हृष्यामि च पुनः पुनः।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
हे राजन्
भगवान् श्रीकृष्णके उस अत्यन्त
अद्भुत विराट्रूपको याद करकरके
मेरेको बड़ा भारी आश्चर्य हो रहा है
और मैं बारबार हर्षित हो रहा हूँ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
जहाँ योगेश्वर
भगवान् श्रीकृष्ण हैं
और जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं?
वहाँ ही श्री? विजय?
विभूति और अचल नीति है — ऐसा मेरा मत है।